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त्वम॒ङ्ग प्रश॑ꣳसिषो दे॒वः श॑विष्ठ॒ मर्त्य॑म्। न त्वद॒न्यो म॑घवन्नस्ति मर्डि॒तेन्द्र॒ ब्रवी॑मि ते॒ वचः॑ ॥३७॥

मन्त्र उच्चारण
पद पाठ

त्वम्। अ॒ङ्ग। प्र॒। श॒ꣳसि॒षः॒। दे॒वः। श॒वि॒ष्ठ॒। मर्त्य॑म्। न। त्वत्। अ॒न्यः। म॒घ॒व॒न्निति॑ मघऽवन्। अ॒स्ति॒। म॒र्डि॒ता। इन्द्र॑। ब्र॒वीमि॒। ते॒। वचः॑ ॥३७॥

यजुर्वेद » अध्याय:6» मन्त्र:37


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हिन्दी - स्वामी दयानन्द सरस्वती

अब प्रजाजन किये हुए सभापति की प्रशंसा कैसे करें, यह अगले मन्त्र में उपदेश किया है ॥

पदार्थान्वयभाषाः - हे (अङ्ग) (शविष्ठ) अत्यन्त बलयुक्त (मघवन्) महाराज के समान (इन्द्र) ऋद्धि-सिद्धि देनेहारे सभापते ! (त्वम्) आप (मर्त्यम्) प्रजास्थ मनुष्य को (प्रशंसिषः) प्रशंसायुक्त कीजिये। आप (देवः) देव अर्थात् शत्रुओं को अच्छे प्रकार जीतनेवाले हैं (न) नहीं (त्वदन्यः) तुमसे अन्य (मर्डिता) सुख देनेवाला है, ऐसा मैं (ते) आप को (वचः) पूर्वोक्त राज्यप्रबन्ध के अनुकूल वचन (ब्रवीमि) कहता हूँ ॥३७॥
भावार्थभाषाः - इस मन्त्र में उपमालङ्कार है। जैसे ईश्वर सर्वसुहृत्, पक्षपातरहित है, वैसे सभापति राज्यधर्म्मानुवर्त्ती राजा होकर प्रशंसनीय की प्रशंसा, निन्दनीय की निन्दा, दुष्ट को दण्ड, श्रेष्ठ की रक्षा करके सब का अभीष्ट सिद्ध करे ॥३७॥ इस अध्याय में राज्य के अभिषेकपूर्वक शिक्षा, राज्य का कृत्य, प्रजा को राजा का आश्रय, सभाध्यक्षादिकों का काम, विष्णु का परमपद वर्णन, सभाध्यक्ष को ईश्वरोपासना करनी, राजा प्रजा का आपस में कृत्य, गुरु को शिष्य का स्वीकार और उस शिष्य को शिक्षा करना, यज्ञ का अनुष्ठान, होम किये द्रव्य के फल का वर्णन, विद्वानों के लक्षण, मनुष्यकृत्य, मनुष्यों का परस्पर वर्तमान, दुष्ट दोष निवृत्ति फल, ईश्वर से क्या-क्या प्रार्थना करनी चाहिये, रण में योद्धा का वर्णन, युद्धकृत्य का निरूपण, युद्ध में परस्पर वर्ताव का प्रकार, वीरों को उत्साह देना, राज्यप्रबन्ध का करना और साध्य साधन, राजा के प्रति ईश्वरोपदेश, राज्यकर्म का अनुष्ठान, राजा और प्रजा का कृत्य, राजा और प्रजा की सभाओं का परस्पर वर्ताव, प्रजा से सभापति का उत्कर्ष करना, प्रजाजन के प्रति सभापति की प्रेरणा, प्रजा को स्वीकार करने के योग्यल सभापति का लक्षण, प्रजा और राजसभा की परस्पर प्रतिज्ञा करनी, सभापति के स्वीकार करने का प्रयोजन, प्रजासुख के लिये सभापति के कामों का अनुष्ठान, सभापत्यादिकों की पत्नियों को क्या करना चाहिये, स्त्री पुरुषों का परस्पर वर्ताव, माता पिता के प्रति सन्तानों का काम और सभापति के प्रति प्रजाजनों का उपदेश वर्णन है, इस से पञ्चम अध्याय में कहे हुए अर्थों के साथ इस छठे अध्याय के अर्थों की सङ्गति है, ऐसा जानना चाहिये ॥
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संस्कृत - स्वामी दयानन्द सरस्वती

अथ प्रजाजनाः कृतं सभापतिं कथं प्रशंसेयुरित्युपदिश्यते ॥

अन्वय:

(त्वम्) (अङ्ग) सम्बोधने (प्र) (शंसिषः) प्रशंस, लेड्मध्यमैकवचनप्रयोगः। (देवः) शत्रून् विजिगीषुः (शविष्ठ) बहु शवो बलं विद्यते यस्य स शवस्वान् सोऽतिशयितस्तत्सम्बुद्धौ, अत्र शवः शब्दाद् भूम्न्यर्थे मतुप् तत इष्ठन्। विन्मतोर्लुक्। (अष्टा०५.३.६५) इति मतुपो लुक्। टेः। (अष्टा०६.४.१५५) अनेन टिलोपः। (मर्त्यम्) प्रजास्थं मनुष्यम् (न) निषेधे (त्वम्) (अन्यः) (मघवन्) ईश्वर इव समृद्धः (अस्ति) (मर्डिता) सुखयिता (इन्द्र) परमैश्वर्य्यान्वित (ब्रवीमि) (ते) तुभ्यम् (वचः) प्राक्प्रतिपादितराजधर्मानुरूपं वचः ॥ अयं मन्त्रः (शत०३.९.४.२४) व्याख्यातः ॥३७॥

पदार्थान्वयभाषाः - हे अङ्ग शविष्ठ मघवन्निन्द्र सभापते ! त्वं मर्त्यं प्रशंसिषो न त्वदन्यो मर्डिता देवोस्त्यतोऽहं ते तुभ्यं वचो ब्रवीमि ॥३७॥
भावार्थभाषाः - अत्रोपमालङ्कारः। यथा पक्षपातविरहः सर्वसुहृदीश्वरस्तदनुकूलः सभापती राज्यधर्म्मानुवर्त्ती राजा प्रशंसनीयं प्रशंसयन्, निन्द्यं निदन्, दण्डार्हं दण्डयन्, रक्षितव्यं रक्षन् सर्वेषामभीष्टं सम्पादयेत् ॥३७॥ अत्राध्याये राज्याभिषेकपुरःसरं शिक्षा, राज्यकृत्यम्, प्रजाया राजाश्रयः, सभाध्यक्षादिकृत्यम्, विष्णोः परमपदादिवर्णनम्, सभाध्यक्षेण तदुपासनम्, परस्परं राजसभाकृत्यम्, गुरुणा शिष्यस्वीकारस्तच्छिक्षाकरणम्, यज्ञानुष्ठानम्, हुतद्रव्यफलम्, विद्वल्लक्षणम्, मनुष्यकृत्यम्, मनुष्याणां परस्परं वर्तनम्, दुष्टदोषनिवृत्तिफलम्, ईश्वरात् किं किं प्रार्थनीयम्, रणे योद्धृवर्णनम्, युद्धकृत्यम्, युद्धेऽन्योन्यवर्त्तमानप्रकारो योद्धॄणामनुमोदनम्, राज्यप्रबन्धकरणम्, तत्र साध्यसाधनम्, राज्यकर्मकरणम्, प्रतीश्वरोपदेशो राज्यकर्मानुष्ठानम्, राजप्रजाकृत्यम्, प्रजाराजसभयोः परस्परानुवर्तनम्, प्रजया सभापत्युत्कर्षकरणम्, प्रजाजनं प्रति सभापतिप्रेरणम्, प्रजया स्वीकर्तव्यम्, सभापतेर्लक्षणम्, प्रजाराजसभयोः परस्परं प्रतिज्ञाकरणम्, सभापतिस्वीकरणप्रयोजनम्, प्रजासुखाय सभापतेः कर्तव्यकर्मानुष्ठानम्, सभापत्यादीनां पत्नीभिः किं किं कर्म कर्तव्यम्, स्त्रीपुंसयोः परस्परमनुवर्त्तमानम्, पितरौ प्रति सन्तानकृत्यम्, सभापतिं प्रति प्रजाजनोपदेशवर्णनं चास्तीत्यतः पञ्चमाध्यायोक्तार्थैः सहास्य षष्ठाध्यायस्यार्थानां सङ्गतिरस्तीति वेद्यम् ॥ इति श्रीमत्परिव्राजकाचार्य्येण श्रीयुतमहाविदुषां विरजानन्दसरस्वतीस्वामिनां शिष्येण दयानदसरस्वतीस्वामिना विरचिते संस्कृतार्य्यभाषाभ्यां विभूषिते सुप्रमाणयुक्ते यजुर्वेदभाष्ये षष्ठोऽध्यायः पूर्तिमगात् ॥६॥
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मराठी - माता सविता जोशी

(यह अनुवाद स्वामी दयानन्द सरस्वती जी के आधार पर किया गया है।)
भावार्थभाषाः - या मंत्रात उपमालंकार आहे. जसा ईश्वर सर्वांचा सुहृद व पक्षपातरहित असतो तसे राजाने धर्मानुसार राज्य चालवावे व प्रशंसा करण्यायोग्य व्यक्ती असेल तर तिची प्रशंसा व निंदा करण्यायोग्य असेल तर तिची निंदा करून दुष्ट लोकांना शिक्षा करावी व श्रेष्ठांचे रक्षण करावे आणि सर्वांचे कल्याण करावे.